Tuesday, December 10, 2019

क्या मक़बूल बट्ट को फांसी भारतीय राजनयिक की हत्या का बदला थी ?

तिहाड़ जेल के जेलर सुनील गुप्ता के लिए मक़बूल बट्ट कश्मीर के एक पृथकतावादी नेता नहीं, बल्कि एक उच्च कोटि के बौद्धिक शख़्स थे जिनके साथ वो अपनी अंग्रेज़ी बेहतर करने का अभ्यास किया करते थे.

'ब्लैक वॉरंट कन्फेसंस ऑफ़ अ तिहाड़ जेलर' के लेखक सुनील गुप्ता याद करते हैं, "जब मैंने मक़बूल बट्ट को पहली बार देखा तब तक वो तिहाड़ के क़ैदियों के बीच बहुत मशहूर हो चुके थे. किसी को अगर कोई दिक्कत होती थी और अगर किसी को जेल के सुपरिंटेंडेंट ने कोई मेमो दिया होता था तो उसका जवाब बनाने के लिए कैदी या तो चार्ल्स शोभराज के पास आते थे या मक़बूल बट्ट के पास."

सुनील गुप्ता ने बताया, "उनकी पूरी शख़्सियत में एक ख़ास किस्म की सौम्यता थी. उनका शफ़्फ़ाक गोरा चेहरा था और वो हमेशा खादी का सफ़ेद कुर्ता पाजामा पहना करते थे. हालांकि वो मुझसे उम्र में बड़े थे, लेकिन जब भी मैं उसके सेल में जाता था, वो उठ कर खड़े हो जाते थे. जेल में कोई भी कैदी आता है, चाहे उसने जितना भी जघन्य अपराध किया हो, कुछ दिनों के बाद हमें वो अपने परिवार का हिस्सा लगने लगता है."

"ज़्यादातर कैदियों के साथ हमारे दोस्ताना संबंध बन जाते हैं. इनके साथ तो हमारे ख़ास संबंध बन गए थे. हम जब भी इनके पास जाते थे, वो बहुत अच्छी तरह से हमारे साथ बात करते थे. हालांकि मेरी पूरी शिक्षा अंग्रेज़ी माध्यम में हुई लेकिन फिर भी मुझे अंग्रेज़ी बोलने में झिझक सी होती थी. मक़बूल ने ही मुझे सबसे पहले बताया कि कैसे इस कमी पर जीत हासिल की जा सकती है."

"वो मुझे बताया करते थे कि अगर आपको हिंदी आती है तो अंग्रेज़ी उसकी तुलना में सरल भाषा है. उनके बेहतरीन व्यवहार के कारण ही मौत की सज़ा पाने के बावजूद उन्हें एकांतवास में नहीं रखा गया था."

साल 1966 में सीआईडी इंस्पेक्टर अमर चंद की हत्या के मामले में मक़बूल बट्ट को फाँसी की सज़ा सुनाई गई थी.

कहा जाता है कि जब उनको वो सज़ा सुनाई गई तो उन्होंने मजिस्ट्रेट से भरी अदालत में कहा था, "जज साहब वो रस्सी अभी तक बनी नहीं जो मक़बूल को फाँसी लगा सके."

इस फैसले के 4 महीने बाद ही बट्ट ने जेल में 38 फ़ीट लंबी सुरंग खोदी थी और वो दो सप्ताह तक लगातार पैदल चलते हुए पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर भाग निकले थे.

वहाँ आठ साल बिताने के बाद वो दोबारा भारतीय कश्मीर लौटे थे और उन्होंने अपने साथियों के साथ हिंडवारा, बारामूला में एक बैंक लूटा था और बैंक मैनेजर की हत्या कर दी थी.

साल 1971 में इंडियन एयरलाइंस के विमान 'गंगा' को पाकिस्तान 'हाईजैक' कर ले जाने की योजना भी उन्हीं की दिमाग़ की उपज थी.

बीबीसी ने उस हाईजैकिंग को अंजाम देने वाले और इस समय श्रीनगर में रह रहे हाशिम क़ुरैशी से पूछा कि इस वारदात में मक़बूल बट्ट का क्या रोल था ?

हाशिम कुरैशी का जवाब था, "उसमें मक़बूल बट्ट का ही तो रोल था. उन्होंने स्पेशल कोर्ट में अपने बयान में साफ़ कहा कि उन्होंने कोई साज़िश नहीं की. हम अपनी क़ौमी आज़ादी की जंग लड़ रहे हैं और ये हमने इसलिए किया ताकि कश्मीर की तरफ़ दुनिया का ध्यान जाए."

"मैं आपको 1970 का वाक़या सुनाता हूँ. हुआ ये कि हम डॉक्टर फ़ारूख हैदर की डायनिंग टेबल पर बैठे हुए थे. अचानक ख़बर आई कि इरीट्रिया के दो चरमपंथियों ने कराची में इथोपिया के एक जहाज़ पर फ़ायरिंग कर उसे नुक़सान पहुंचाया है. मक़बूल ने जैसे ही ये सुना, वो छलांग मार कर उठ खड़े हुए और बोले हमें भी ऐसा ही करना चाहिए."

"गंगा हाइजैकिंग की असली मंसूबाबंदी यहीं से शुरू हुई. कुछ दिनों बाद बट्ट साब ने कहा कि अगर हम आपको जहाज़ अग़वा करने की ट्रेनिंग दें, तो क्या आप उसे अंजाम दे पाएंगे? मैंने उनसे कहा कि मैं हर चीज़ करने के लिए तैयार हूँ."