Sunday, November 18, 2018

मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव 2018: क्या 'आदिवासियों के हिन्दूकरण' से जीत रही बीजेपी?

समाजवादी जनपरिषद के उम्मीदवार फागराम पिछले तीन चुनावों से खड़े हो रहे हैं, लेकिन दो से पाँच हज़ार वोटों में ही सिमट कर रह जाते हैं.

फागराम इस बार होशंगाबाद ज़िले के सिवनी मालवा विधानसभा क्षेत्र से चुनाव मैदान में हैं. वो जानते हैं कि इस बार भी चुनाव नहीं जीतेंगे, लेकिन फिर भी लड़ रहे हैं. फागराम आदिवासी हैं और एक मोटरसाइकिल से अपने इलाक़े में प्रचार करने निकलते हैं.

एक तरफ़ जहां कांग्रेस और बीजेपी के करोड़पति उम्मीदवार हैं तो दूसरी तरफ़ एक झोले के साथ प्रचार पर निकलने वाले फागराम. फागराम आख़िर क्यों चुनाव लड़ते हैं?

वो कहते हैं, ''मैं इन्हें जिस हद तक चुनौती दे सकता हूं और आदिवासियों के बीच जितनी जागरुकता फैला सकता हूं उसे करने से बाज नहीं आऊंगा. भले कभी ना जीत पाऊं.''

मध्य प्रदेश में आदिवासी लगभग 23 फ़ीसदी हैं और इनके लिए 47 सीटें सुरक्षित हैं.

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पिछले तीन विधानसभा चुनावों से आदिवासियों के लिए रिज़र्व सीटों पर बीजेपी जीत हासिल कर रही है.

आदिवासी सीटों का गणित
2013 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने आदिवासियों के लिए सुरक्षित 47 में से 31 सीटों पर जीत दर्ज की थी.

2008 में भी 47 में से 31 आदिवासी सीटें बीजेपी की झोली में गईं. 2003 में परिसीमन से पहले आदिवासियों के लिए 41 सीटें रिज़र्व थीं और बीजेपी ने 37 सीटें जीती थीं.

1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण हो रहा था, लेकिन दिलचस्प है कि मध्य प्रदेश के 1993 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी की सीटें कम हो गई थीं.

1990 में मध्य प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी को कुल 320 में से पूर्ण बहुमत से भी ज़्यादा 220 सीटों पर जीत मिली थी जो 1993 में 116 पर आकर सिमट गई.

1993 में आदिवासियों के लिए रिज़र्व सीटों पर बीजेपी के महज़ तीन प्रत्याशी ही जीत पाए थे. 1993 में ही दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री बने और 2003 तक रहे.

आख़िर बीजेपी ने आदिवासियों के लिए ऐसा क्या कर दिया है कि लगभग सुरक्षित सीटें पिछले तीन चुनावों से उसी की झोली में जा रही हैं? ऐसा तब है जब आदिवासी आज भी वन अधिकार के लिए लड़ रहे हैं. शिक्षा और रोज़गार के मामले में पिछड़े हुए हैं और बड़े बांधों के कारण आज भी विस्थापन का दंश झेल रहे हैं.

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शिवराज सिंह चौहान
बीजेपी की जीत के कारण
सिवली मालवा के ही केसला गांव के इक़बाल बालू जेएनयू से पीएचडी कर रहे हैं.

फागराम भी इसी गांव के हैं. इक़बाल बीजेपी की जीत के कई कारण बताते हैं.

वो कहते हैं, ''पिछले तीन चुनावों में कांग्रेस ज़मीनी स्तर पर बुरी तरह से बिखर गई है. आदिवासियों की एक पार्टी गोंडवाना गणतंत्र पार्टी बनी भी तो वो जल्द ही राजनीतिक सौदेबाज़ी में लिप्त हो गई. गोंडवाना गणतंत्र के नाम से ही ऐसा लग रहा था कि यह केवल गोंड आदिवासियों के लिए है जबकि मध्य प्रदेश में भील आदिवासी भी भारी तादाद में हैं.''

इक़बाल कहते हैं, ''इस दौरान आरएसएस के संगठन वनवासी कल्याण परिषद ने भी आदिवासियों के बीच अपने एजेंडों को फैलाया. वनवासी कल्याण परिषद ने कई धार्मिक अनुष्ठानों का बड़े पैमाने पर आयोजन कराया. इसमें सबरी के किरदार को इन्होंने आगे किया. इन्होंने बताया कि कैसे सबरी ने राम को जूठा बेर खिलाया था और राम ने बेर प्रेमवश खाए थे. ये सबरी कुंभ का आयोजन करने लगे. आदिवासियों को दूसरे राज्यों में धार्मिक यात्राओं पर भेजने लगे. इन्होंने हाशिए के आदिवासी इलाक़ों में छात्रावास और पुस्तकालय खोले. पुस्तकालय में मिलने वाली किताबें हिन्दूवादी विचारों की ओर प्रेरित करने वाली होती हैं और छात्रावास में जो छात्र रहते हैं, आरएसएस उन्हें अपने हिसाब से प्रशिक्षित करता है.''

इक़बाल कहते हैं कि मसला केवल आरएसएस का ही नहीं है बल्कि मीडिया ने भी सवर्ण मूल्यों और हिन्दू रीति-रिवाज को स्थापित करने में अपनी भूमिका अदा की है. मध्य प्रदेश में आदिवासी इलाक़ों में काम करने वाले अनुराग मोदी भी इक़बाल से सहमत दिखते हैं.

आरएसएस के लोग आदिवासियों को वनवासी कहना पसंद करते हैं. 2002 में जब बिहार का विभाजन हुआ था तो अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार इसका नाम वनांचल रखना चाहती थी न कि झारखंड. आरएसएस का कहना है कि जो भी वन में रहते हैं सब वनवासी हैं.

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