Wednesday, February 6, 2019

मलका पुखराज... वो बातें तेरी वो फ़साने तेरेः विवेचना

हफ़ीज़ जालंधरी की नज़्म अभी तो मैं जवान हूँ को पूरी दुनिया में मशहूर करने का श्रेय अगर किसी को दिया जा सकता है, तो वो हैं मलका पुखराज.

कश्मीर के महाराजा हरि सिंह के दरबार से अपने करियर की शुरुआत करने वाली मलका ग़ज़ल गायकी के उस मुक़ाम तक पहुंची, जहाँ अब तक बहुत कम लोग पहुंच पाए हैं.

उनकी मौत से एक साल पहले अंग्रेज़ी में उनकी आत्मकथा प्रकाशित हुई थी, ' सॉन्ग संग ट्रू.' दिलचस्प बात ये है कि उसको उनके देश पाकिस्तान में नहीं, बल्कि भारत में छपवाया गया था और उसको छपवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी मलका को नज़दीक से जानने वाले पाकिस्तान के जाने-माने राजनीतिज्ञ और वकील रज़ा काज़िम ने.

रज़ा काज़िम बताते हैं, ''मलका पुखराज से मेरी वाकफ़ियत हो गई थी. वो आती-जाती थीं मेरे पास. मैं उनका क़दरदान था, एक फ़नकार की हैसियत से और वो मुझ पर ऐतबार करती थीं. जब उन्होंने अपने हाथ से लिखा मसौदा मुझे दिया तो मैंने उसे पूरा पढ़ा. मैंने उनसे कहा कि मैं इसे दिल्ली में जा कर छपवाउँगा, क्योंकि उसका पाकिस्तान में छपना मुश्किल था.''

उन्होंने बताया, ''उनके दामाद जो यहां वकील थे, वो उसके छपने की सख़्त मुख़ालफ़त कर रहे थे. उसमें उन्होंने अपने रिश्तेदारों के ख़िलाफ़ काफ़ी कुछ लिखा था मैंने जब उनसे उसे छपवाने की इजाज़त माँगी तो उन्होंने वो मसौदा मुझे पकड़ा दिया और कहा तुम इसका जो चाहो कर सकते हो. सलीम क़िदवई मेरे जानने वाले थे और अजीज़ दोस्त भी थे. मैंने उनसे उसे भारत में छपवाने के लिए कहा तो वो इसके लिए फ़ौरन राज़ी हो गए.''

जब सलीम किदवई को उनकी उर्दू में लिखी आत्मकथा का अंग्रेज़ी में अनुवाद करने की ज़िम्मेदारी दी गई तो उन्होंने तय किया कि इससे पहले कि वो अपने काम की शुरुआत करें, वो मलका से मिलने लाहौर जाएंगे.

सलीम बताते हैं, ''बहुत ही प्रभावशाली शख़्सियत थी उनकी, हाँलाकि उनकी उम्र हो गई थी. हमेशा 'वेल टर्न्ड आउट' रहती थीं और ऐसा लगता था कि वो हमेशा ऐसी ही रहीं होंगी. उनको हमेशा से अच्छे कपड़े और ज़ेवर पहनने का शौक था. आख़िर तक उनका ये शौक बरकरार रहा. जूते ज़रूर वो 'स्नीकर्स' पहनती थीं, ताकि उन्हें चलने में दिक्कत न हो.''

वह कहते हैं, ''शुरू में न मैं उन्हें जानता था और न ही वो मुझे जानती थीं. थोड़ी 'ऑक्वर्डनेस' थी हम दोनों के बीच लेकिन बहुत जल्दी वो ख़त्म हो गई. वो बहुत सी ऐसी बातें करती थीं, जो उस किताब में दर्ज नहीं थीं. जब मैंने एक दफ़ा उनसे कहा कि इन्हें किताब में होना चाहिए तो उन्होंने कहा नहीं, जो मैंने लिखना था वो लिख दिया है. अब और कुछ उस किताब में नहीं जाएगा.''

चिकन का मुकैश से कढ़े कपड़े का तोहफ़ा

जब सलीम क़िदवई लाहौर गए तो वो उनके लिए लखनऊ की सेवा दुकान से चिकन का मुकैश से कढ़ा कपड़ा ले गए, लेकिन वो मलका पुखराज को पसंद नहीं आया. कहने लगीं कि इससे उनकी खाल छिल जाएगी.

सलीम क़िदवई याद करते हैं, ''उन्होंने कहा कि ये हैं तो बहुत ख़ूबसूरत, लेकिन ये गड़ेगा मेरी खाल को. अबकी आना तो बिना मुकैश की कढ़ाई वाला कपड़ा लाना. फिर उन्होंने बताया कि उन्हें कौन से रंग पसंद हैं.''

बाबा नानकदेव की तस्वीर काढ़ी थी मलका पुखराज ने
मलका पुखराज की पोती फ़राज़े सैयद, जिन्हें उन्होंने गोद भी ले लिया था, बताती हैं कि उनके अंतर्मन और हाथों के बीच ग़ज़ब का सामंजस्य था.

फ़राज़े कहती हैं, ''उनका 'हैंड-राइटिंग' पर बहुत 'फ़ोकस' था और लोग मिसाल दिया करते थे कि ऐसी होनी चाहिए 'हैंड- राइटिंग.' मुझे भी वो बचपन में तख़्ती पर लिखवाया करती थीं, कलम के साथ ताकि मेरी 'राइटिंग' भी अच्छी हो जाए. लेकिन मेरी 'राइटिंग' उतनी अच्छी नहीं हो पाई. इसकी वजह से मुझे उनसे बहुत मार भी पड़ी.''

वह कहती हैं, ''वो बहुत दिल लगाकर कढ़ाई करती थीं. उनकी कढ़ाई के कपड़ों की बहुत सी 'एक्ज़ीबीशन्स' भी हुईं. उनके एक दोस्त जो टोरंटो में रहते थे और सिख थे, उनके लिए उन्होंने बाबा नानक की तस्वीर काढ़ कर उन्हें भिजवाई थी. इसके अलावा उन्हें बागबानी का भी बहुत शौक था. दिन में वो तीन-तीन, चार-चार घंटे 'गार्डनिंग' किया करती थीं.''

फ़राज़े बताती हैं, ''उन्हें खाना बनाने का भी बहुत शौक था और वो बेहतरीन खाना बनाती थीं. पूरा-पूरा दिन लगता था उनको एक हांडी बनाने में. मैं अक्सर उनसे सेब- गोश्त बनाने की फ़रमाइश करती थी. ये उनकी कश्मीर की एक 'डिश' थी. वो ख़ास सेब मंगवाती थीं एक ख़ास जगह से और फिर उन्हें सुखा कर रख देती थीं. मौसमी सब्ज़ियों को भी वो सुखा कर रखती थीं. सारा साल हमारे घर के पीछे अचार डल रहे होते थे. ये सारा काम वो खुद करती थीं. उनकी हांडी में अगर कोई चम्मच भी हिला दे, तो उनके लिए ये बहुत बड़ा मुद्दा बन जाता था.''

अपनी गाड़ी ठीक करवाने खुद जाती थीं मलका
उनमें ऊर्जा इतनी थी कि वो जून की तपती धूप में भी अपनी गाड़ी ठीक करवाने खुद जाती थीं.

फ़राज़े याद करती हैं, ''वो 'ट्रस्ट' नहीं करती थीं कि कोई उनकी गाड़ी ठीक करवा दे. दूध भी लेना हो तो वो अपने ड्राइवर के साथ बाज़ार जाती थीं, क्योंकि वो अपनी गाड़ी किसी को नहीं देना चाहती थीं. वो गाड़ी से उतर कर घंटों 'मेकैनिक' के सिर पर खड़ी रहतीं और कहा करती थीं, 'तू ऐ नहीं ठीक कीता, तू ओ नहीं ठीक कीता. तू गड्डी ठीक नहीं कीता सही तरह से'.''

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