Wednesday, February 13, 2019

ईरान को झुकाना इतना मुश्किल क्यों हो गया है

वॉरसा में अमरीका की मेज़बानी में होने जा रहा मध्य-पूर्व सम्मलेन एक दिलचस्प कूटनीतिक आयोजन हो सकता है.

लेकिन पश्चिमी देशों और अरब देशों का ये सम्मेलन पोलैंड की राजधानी में क्यों हो रहा है? इसका सह-आयोजक पोलैंड मध्य-पूर्व की राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए नहीं जाना जाता है.

लेकिन पोलैंड नेटो का एक सक्रिय सदस्य है और रूस के साथ उसका मुश्किल इतिहास उसे अमरीका की ओर झुकने की अच्छी वजह देता है.

पोलैंड में अमरीका का एंटी-बैलिस्टिक मिसाइल ठिकाना भी हैं. पोलैंड के बहुत से नागरिक अपने देश में अमरीका का सैन्य अड्डा भी चाहते हैं.

कुछ लोगों ने इसे फ़ोर्ट ट्रंप का नाम भी दिया है. ऐसे में अमरीकी कूटनीतिक सम्मेलन का आयोजन करना उन्हें अपने हित की बात लगती है.

लेकिन इस सम्मेलन के पोलैंड में होने की एक और वजह ये है कि यूरोप में अमरीका के अन्य दोस्त देश इसकी मेज़बानी के लिए बहुत उत्साहित नहीं थे.

यूरोपीय कूटनीतिक गलियारे में इसे लेकर एक साझा असहजता भी दिख रही है. सम्मेलन क़रीब है और अभी ये स्पष्ट नहीं है कि कौन-कौन इसमें शामिल होगा और किस स्तर का प्रतिनिधित्व रहेगा.

इसलिए अब सम्मेलन के एजेंडे को और व्यापक करते हुए "मध्य पूर्व में सुरक्षित और शांतिपूर्ण भविष्य को बढ़ावा देना" कर दिया गया है.

एजेंडे में अब ईरान का नाम नहीं है जबकि मानवीय और शरणार्थी संकट, मिसाइल प्रसार और 21वीं सदी में आतंकवाद और साइबर हमलों की चुनौतियों इसमें शामिल हैं.

इसराइल-फ़लस्तीनी विवाद भी एजेंडे में शामिल नहीं है. फ़लस्तीनी इस सम्मेलन में हिस्सा नहीं ले रहे हैं क्योंकि उन्होंने ट्रंप प्रशासन का बहिष्कार किया हुआ है.

कौन हिस्सा ले रहा है और क्यो?
इस सम्मेलन में कौन-कौन शामिल हो रहा है ये तब तक नहीं पता चलेगा जब तक मंत्री और अधिकारी वास्तव में यहां नहीं पहुंचेंगे.

अमरीका का प्रतिनिधित्व विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो करेंगे लेकिन माना जा रहा है कि उपराष्ट्रपति माइक पेंस और ट्रंप के दामाद जेरेड कशनर भी इसमें हिस्सा ले सकते हैं.

कशनर को ही मध्य पूर्व में अमरीकी शांति योजना का आर्किटेक्ट माना जा रहा है.

ब्रितानी विदेश मंत्री जेरेमी हंट कम से कम उद्घाटन सत्र में मौजूद रहेंगे.

वहीं यूरोप के अन्य बड़े देशों की भी इसमें प्रतिनिधित्व होगा लेकिन वो निचले स्तर के अधिकारियों को ही भेज सकते हैं.

पोलैंड से जुड़े सूत्रों के मुताबिक़ इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू वॉरसा आ रहे हैं. कई अरब देश अपने मंत्रियों के नेतृत्व में प्रतिनिधिमंडल भेज रहे हैं जिनमें सऊदी अरब, यमन, जॉर्डन, कुवैत, बहरीन, मोरक्को, ओमान, संयुक्त अरब अमीरात, मिस्र और ट्यूनीशिया शामिल हैं.

1990 के दशक में मैड्रिड में हुए सम्मेलन के बाद ये पहली बार होगा जब इसराइल और उदारवादी अरब देश शांति वार्ता में हिस्सा लेंगे. शांति के कई पहलुओं पर बात होगी लेकिन चर्चा का अहम मुद्दा ईरान ही रह सकता है.

सम्मेलन में हिस्सा ले रहे देशों में ईरान को लेकर मतभेद भी हैं. अमरीका, इसराइल और कई उदारवादी अरब देश क्षेत्र में ईरान के बढ़ते प्रभाव को लेकर चिंतित हैं जो मानते हैं कि ईरान हर मौक़े का इस्तेमाल अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए कर रहा है.

ये देश 2015 में ईरान की परमाणु गतिविधियों को सीमित करने के लिए हुए समझौते को लेकर भी आशंकित थे.

ख़ासतौर पर इसराइल इस मुद्दे पर सऊदी अरब और अमरीका के साथ खड़ा है.

सीरिया और लेबनान में बढ़ते ईरानी सैन्य दख़ल का सामना इसराइल कर रहा है. इस क्षेत्र में वो ईरान समर्थिक मिलिशिया और ईरानी बलों के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहा है.

नेतन्याहू ये तर्क दे सकते हैं कि ईरान को परमाणु समझौते को लेकर अमरीका और यूरोपीय देशों में हुए मतभेद के नज़रिए से न देखा जाए.

वो तर्क दे सकते हैं कि इस मुद्दे पर यूरोपीय मूल्य ही दांव पर हैं. ईरान का व्यवहार, आतंकवाद को उसका समर्थन, मानवाधिकार उल्लंघन और विदेशी नागरिकों को हिरासत में रखना ऐसे मुद्दे हैं जिन पर यूरोपीय देशों को चिंतित होना चाहिए.

ये सच है कि लंदन, पेरिस और बर्लिन में विदेश मंत्री ईरान के क्षेत्रीय प्रभाव और उसके मिसाइल कार्यक्रम को लेकर चिंतित हैं. लेकिन इसे लेकर क्या किया जाए इस पर अनिश्चितता है.

यूरोपीय देशों के लिए ईरान के परमाणु कार्यक्रम को रोके रखने के लिए परमाणु समझौते को बनाए रखना सबसे बड़ी चिंता है. लेकिन अमरीका, इसराइल और अरब देशों के लिए ये अपर्याप्त है.

लेकिन इस समय ब्रेक्ज़िट और कई अन्य मुद्दों को लेकर भी यूरोप का ध्यान बंटा हुआ है. ट्रंप प्रशासन के साथ लगातार टकराव और अमरीकी राष्ट्रपति के अनिश्चित नीतिगत निर्णय- जैसे की सीरिया से अमरीकी बलों को वापस बुलाना और अफ़ग़ानिस्तान से सैन्य बल बुलाने का फ़ैसला करना- जैसे निर्णयों ने हालात और बदतर किए हैं.

ईरान परमाणु समझौते से अमरीका का अलग होना और हाल ही में आईएनएफ़ निरस्त्रीकरण संधि से अलग होने से अमरीका पर यूरोप का लगातार कम हो रहा भरोसा और कमज़ोर होता है.

ऐसे में मध्य पूर्व में भले ही कितनी समस्याएं हों, ये सम्मेलन में हमें पश्चिमी खेमों में बढ़ रहे मतभेद के बारे में अधिक बतायएगा, जो हर दिन के साथ बेहतर होने के बजाए और बदतर होते जा रहे हैं.

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