Monday, April 8, 2019

विवेचना: 1977, जब कोई पार्टी नहीं, 'जनता' लड़ रही थी चुनाव

1 मार्च, 1977 को दिल्ली के बोट क्लब में होने वाली चुनावी रैली में मौजूद सरकारी कर्मचारी इंदिरा गांधी से बहुत ख़फ़ा थे.

नई दिल्ली से कांग्रेस प्रत्याशी शशि भूषण ने जब नारा लगाया, 'बोलो इंदिराजी की जय' तो भीड़ की तरफ़ से एक आवाज़ भी नहीं आई. शशि भूषण को लगा कि शायद माइक नहीं काम कर रहे हैं.

उन्होंने जब माइक को खड़खड़ाया तो वहाँ मौजूद लोग हँसने लगे. दिल्ली की जनता ने प्रधानमंत्री के लिए इस तरह की उपेक्षा पहले कभी नहीं दिखाई थी. इंदिरा गांधी का भाषण समाप्त होने से पहले ही लोग वहाँ से उठना शुरू हो गए थे.

अचानक चुनाव ने विपक्ष को किया अचंभित
1977 में लोकसभा का कार्यकाल नवंबर में ख़त्म होने वाला था. लेकिन इंदिरा गांधी ने अचानक 18 जनवरी को चुनाव की घोषणा करके देशवासियों और विपक्ष दोनों को अचंभे में डाल दिया था.

इंदिरा गांधी सेंटर ऑफ़ आर्ट्स के अध्यक्ष और वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय बताते हैं, "इस घोषणा से 16-17 दिन पहले मैं दिल्ली में था. उस समय जितने भी बड़े नेता थे, उनसे मैं मिला था. चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी और चंद्रशेखर सब का मानना था कि इंदिरा गाँधी विपक्ष के लोगों का मनोबल गिरा रही थीं. वो उन्हें या तो अपनी तरफ़ खींच रही थीं या तोड़ रही थीं और उनसे लेन-देन की बातचीत चल रही थी. इनमें से कोई भी नहीं समझता था कि चुनाव होंगे."

"जब चुनाव की घोषणा हो गई तो कोई भी चुनाव लड़ने के लिए तैयार नहीं था. मैंने राज नारायण के भाई से, जो हाल ही में उनसे जेल में मिलकर आए थे, पूछा कि उनकी क्या योजना है? उन्होंने जेल से ही कहलवाया था कि मैं रायबरेली से चुनाव नहीं लड़ूंगा. जॉर्ज फ़र्नान्डिस और अटल बिहारी वाजपेयी बड़े नेता हैं, वही जाकर वहाँ से चुनाव लड़ें. जब मैंने सुंदर सिंह भंडारी जैसे नेता से पूछा कि कैसी तैयारी है तो वो बहुत निराश दिखाई दे रहे थे. उनका कहना था कि न तो हमारे पास चुनाव लड़ने के लिए पैसा आएगा और न ही कार्यकर्ता पूरी हिम्मत से हमारे लिए काम करेंगे क्योंकि तब तक इमरजेंसी हटाई नहीं गई थी."

इंदिरा गांधी ने पूरे चुनाव प्रचार के दौरान 40 हज़ार किलोमीटर की यात्रा की. जम्मू कश्मीर और सिक्किम को छोड़कर वो हर राज्य में गईं और 244 चुनाव सभाओं को संबोधित किया. लेकिन उन्हें ये अंदाज़ा लग गया था कि इस बार जनता उनके साथ नहीं है.

जगजीवन राम और हेमवतीनंदन बहुगुणा के कांग्रेस से इस्तीफ़ा देने के बाद जो जनता लहर बनी, उसने इंदिरा गाँधी को सत्ता से हटा कर ही दम लिया.

राम बहादुर राय बताते हैं, "वो पहला चुनाव था और आगे शायद हो या न हो, जिसमें पार्टी पीछे हो गई थी, नेता पीछे हो गए थे, सिर्फ़ जनता चुनाव लड़ रही थी. उस ज़माने में चंद्रशेखर की जब कोई चुनावी सभा होती थी तो एक आदमी चादर लेकर घूम जाता था और 10-15 लाख रुपए इकट्ठा हो जाते थे."

"इस बात की सूचना मात्र से कि बाहर से कोई शख़्स जनता पार्टी का प्रचार करने आया है, दस- पंद्रह हज़ार लोगों की भीड़ जमा हो जाती थी, चाहे लोग उसे जानते हों या न हों. चंद्रभानु गुप्त ने एक बार मुझसे पूछा कि अल्मोड़ा कोई जाने के लिए तैयार नहीं हो रहा है. वहाँ से डाक्टर मुरली मनोहर जोशी चुनाव लड़ रहे हैं. क्या तुम वहाँ जाओगे ? मैं वहाँ पहुंच गया. आप यकीन नहीं करेंगे कि पिथौरागढ़ में सिर्फ़ 10 मिनट तक रिक्शे पर प्रचार हुआ कि जनता पार्टी की एक सभा होने वाली है. वो पिथौरागढ़ के इतिहास की सबसे बड़ी सभा थी."

उत्तर भारत के हर कोने में इंदिरा गांधी की चुनावी सभा में जनता की उदासीनता साफ़ दिखाई दे रही थी. डी.आर मनकेकर और कमला मनकेकर अपनी किताब 'डिक्लाइन एंड फॉल ऑफ़ इंदिरा गांधी' में जालंधर की एक चुनावी सभा का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं, "इंदिरा गांधी ने 11 मार्च को जालंधर में जो चुनावी सभा की थी वो लोगों की नज़र में कांग्रेस की स्थिति का सही पैमाना था. इस बैठक को सफल बनाने के लिए राज्य सरकार ने सैकड़ों बसों का इस्तेमाल किया था, ताकि आसपास के इलाक़ों से ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को इस रैली में लाया जा सके."

"सभा का समय भी शाम साढ़े सात से बदलकर सूर्यास्त कर दिया गया था, ताकि लोगों को वापस घर पहुंचने में देरी न हो. मुफ़्त की सवारी और आधे दिन की छुट्टी का फ़ायदा उठाते हुए लोग सभा में आए ज़रूर, लेकिन उनका मन खिन्न था."

"जब कांग्रेस के वक्ताओं ने जगजीवन राम पर हमला बोला और ये कहा कि अकालियों को उनके अनुरोध पर ही गिरफ़्तार किया गया था, तो भीड़ भड़क गई. सभा की समाप्ति पर सभी लोगों ने कांग्रेस पार्टी द्वारा दी गई मुफ़्त की सवारी ली लेकिन रास्ते भर वो जनता पार्टी ज़िंदाबाद के नारे लगाते गए."

जगजीवन राम के इस्तीफ़े के बाद विपक्ष ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक ज़बरदस्त रैली की थी जिसके बारे में कहा जाता है कि दिल्ली के इतिहास में किसी सभा में इतना बड़ा जन सैलाब कभी नहीं देखा गया.

मशहूर पत्रकार कूमी कपूर अपनी किताब 'द इमरजेंसी - अ पर्सनल हिस्ट्री ' में लिखती हैं, "भीड़ को दूर रखने के लिए तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने दूरदर्शन से कहकर रविवार की फ़ीचर फ़िल्म का समय चार बजे से बदलवाकर पाँच बजे करवा दिया था."

"पूर्व- निर्धारित फ़िल्म 'वक़्त' के स्थान पर उन्होंने 1973 की सबसे बड़ी फ़िल्म ब्लॉकबस्टर 'बॉबी' दिखाने का फ़ैसला किया था. एक बार फिर रामलीला मैदान के आसपास किसी बस को आने नहीं दिया गया था और लोगों को सभास्थल तक पहुंचने के लिए एक किलोमीटर तक चलना पड़ा था. जेपी और जगजीवन राम 'बॉबी' से कहीं बड़े आकर्षण सिद्ध हुए."

"अटल बिहारी वाजपेयी की दत्तक पुत्री नमिता भट्टाचार्य ने मुझे बताया था कि जब वो सभास्थल की तरफ़ जा रही थीं तो उन्हें कुछ दबी हुई सी आवाज़ सुनाई दी. हमने टैक्सी ड्राइवर से पूछा, 'ये किसकी आवाज़ है ?' उसका जवाब था, 'ये लोगों के क़दमों की आवाज़ है.' जब हम तिलक मार्ग पहुंचे तो वो लोगों से खचाखच भरा हुआ था. हमें वहाँ अपनी टैक्सी छोड़नी पड़ी और वहाँ से रामलीला मैदान हम पैदल गए."

इससे पहले रामलीला मैदान में एक और सभा हुई थी जिसे अटल बिहारी वाजपेयी ने संबोधित किया था. उस सभा में मशहूर पत्रकार वीरेंद्र कपूर भी मौजूद थे.

कपूर बताते हैं, "उस सभा में क़रीब-क़रीब आधी दिल्ली उमड़ पड़ी थी. दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र लोगों के जूते पॉलिश कर जनता पार्टी के लिए पैसे जमा कर रहे थे. साढ़े नौ बजे अटलजी बोलने के लिए खड़े हुए. उन्होंने थोड़ा 'पॉज़' लिया और आँखें बंद करके कहा, 'बाद मुद्दत के मिले हैं दीवाने.' भीड़ पागल होकर ताली बजाने लगी. उन्होंने फिर आँखें बंद की और लंबे 'पॉज़' के बाद कहा, 'कहने सुनने को बहोत हैं अफ़साने.' इस बार और लंबी तालियाँ बजीं. उसके बाद उन्होंने उसी समय स्वरचित दो लाइनें जोड़ीं -

भीड़ ने पूरे दो मिनट तक ताली बजाई. वाजपेयी का भाषण समाप्त होने और नेताओं के वापस चले जाने के काफ़ी देर बाद तक भीड़ वहाँ रुकी रही मानो उन्होंने सामूहिक रूप से ये तय कर लिया हो कि उन्हें ताली बजाने के अलावा इनके लिए कुछ और भी करना है. मीटिंग के बाद कनॉट-प्लेस तक लोग पैदल चले आ रहे थे. उस रात मुझे पहली बार अंदाज़ा हुआ कि इंदिरा गाँधी चुनाव हार भी सकती हैं."

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